आँखों में तुम सुरमा लगाए आती हो
बिखरने की बात हमसे मत करो,
सीने पर ओढ़नी लिए आती हो
बस एक हवा के झोंके की बात हमसे मत करो.
सारा दिन पड़े पड़े बस सोचती हो
हैरानियों की बात हमसे मत करो,
चारपाई भी अब तंग आ चुकी हैं
कोई आलाव जलाने की बात हमसे मत करो.
कह दो,
बहने दो,
धडकनों में घबराहट की बात हमसे मत करो.
ऐसा मत करो,
वैसा मत करो,
बस….बात करो.
पर जब यही मैं खुदसे कह रही होती हूँ
तो लगता हैं,
अब बात करने का भी समय नहीं रहा
चाहत भी नहीं
लगता हैं…..
कितना वक्त गुज़र गया
कितना और बाकी हैं
शायद सब हैं हवा
लगता हैं सब खाली हैं
खाने के लिए ख़ामोशी हैं
और पीने के लिए ग़म भी नहीं
शायद इसलिए आज आपके सामने बोल रही हूँ
पर लफ्ज़ भी मुझसे खुश नहीं
और इसी बीच यूं लगता हैं की
कोई चाहिए, कोई तो पास चाहिए
फिर सोचती हूँ….
कुछ हुआ क्यों नहीं
कोई आया क्यों नहीं
ये ऐसे सीधे शब्द क्यों हैं
कुछ मोड़ जैसा दिखा क्यों नहीं
वक्त का पता क्यों नहीं होता
ऐसा नहीं की ध्यान नहीं
मुस्कुराहटें ही तो लता हैं
ऐसा भी तोह नहीं की मैं परेशां नहीं
इज़हार सिर्फ प्यार का तो नहीं होता
कुछ और भी बातें हैं
पर अब तक हैं सिर्फ ज़हन में
कहना आता क्यों नहीं
पर अब यूं हुआ हैं की
एक झलक दिखी हैं,
आखिर कोई आया हैं…
कोई ऐसा की जिसके साथ बातें करते समय
मैं उसकी तरफ देखती नहीं
पता नहीं,
शायद वो मुझे देखता होगा.
हाँ, कभी कभी आँखें अचानक मिल जाती हैं
फिर थोड़ी देर रूकती हैं,
और फिर डगमगा जाती हैं.
नहीं…
मैं उसकी आँखों में देख नहीं सकती
मैं खो जाउंगी
शायद मैं उसकी बातों के साथ साथ
उसके भाव भी सुन लेती हूँ
पर अब बस
न अंदाज़ बांधना हैं
न इन सवालों का जवाब पाना हैं
बरस बीत गए
अब सिर्फ इंतज़ार हैं
खुद का, किसी चमत्कार का नहीं.
कैसी लगी ज़रूर बताना…
समिधा
(Thanks to Rupal Jhajhria for the poem and Ritika Dwivedi for the photo)